प्रस्तावना इस अधिनियम की प्रस्तावना में वे तत्व शामिल किए गए जिसके अनुसार भारत में सुधार लाए जाने थे, जो लगभग वही थी जो 20 अगस्त उन्नीस सौ की घोषणा में कहे गए थे। इसके अनुसार भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अभिन्न अंग रहना था, भारत में उत्तरदायित्व सरकार की स्थापना होनी थी, जो कि केवल क्रमश: आना संभव था, जिसके लिए भारतीयों का प्रशासन के विभिन्न भागों में सहचार्य बढ़ाना चाहिए। और धीरे-धीरेे स्वायत्त शासन आना संभव था, प्रांतों में स्वायत्तता शासन के बढ़ाने के साथ यह आवश्यक है कि प्रांतों को भारत सरकार के नियंत्रण से जहां तक संभव अधिकाधिक मुक्त किया जाए।
प्रस्तावना का मूल उद्देश्य यह था कि जो भी घोषणा मोंटेग्यू ने की थी उसे अब एक वैधानिक रूप दे दिया गया था अंग्रेजी सरकार का भारत पर नियंत्रण स्पष्ट कर दिया गया और यह भी स्पष्ट हो गया कि भविष्य में किस दशा में कैसे जाना है।
1919 के अधिनियम की मुख्य धाराएं
1 ग्रह सरकार में परिवर्तन
1793 से भारत में राजस्व सचिव को भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था वह अब अंग्रेजी राजस्व से मिलने लगा था, उसके कुछ कार्य लेकर एक नए पदाधिकारी भारतीय उच्च आयुक्त जिसको भारतीय राजस्व से वेतन मिलता था उसको दे दिया गया । उच्चायुक्त स परिषद गवर्नर जनरल का कार्यकर्ता बन गया। प्रांतों में हस्तांतरित विषयों पर भारत राज्य सचिव का नियंत्रण कम हो गया यद्यपि केंद्र पर उसका नियंत्रण बना रहा।
इस अधिनियम में भारतीय सचिव की भूमिका में जो परिवर्तन हुए उनका परिणाम से जो कांग्रेस ने 1916 के प्रस्ताव में किए थे। कांग्रेस का कहना था कि भारत शासन दिल्ली और शिमला से होना चाहिए ना की वाइटहॉल से।
भारत सरकार में परिवर्तन कार्यकारिणी में
यद्यपि केंद्र में उत्तरदायित्व सरकार लाने का कोई प्रयास नहीं किया गया परंतु भारतीयों को अधिक प्रभावशाली भूमिका दी गई। गवर्नर जनरल की कार्यकारणी में 8 सदस्यों में से तीन भारतीयों को नियुक्त किया गया और उन्हें विविध, शिक्षा, श्रम तथा स्वास्थ्य एवं उद्योग इत्यादि सौंप दिए गए।
इस समय केंद्र का सभी विषयों पर अधिकार था और वह सभी विषयों में आज्ञा दे सकता था तथा कानून बना सकता था। चेन्नई सुधारों के अनुसार विषयों को और प्रांतों में बांट दिया गया। केंद्रीय सूची में सम्मिलित विषय पर सपरिषद गवर्नर जनरल का अधिकारी था। इसमें वे विषय सम्मिलित थे जो राष्ट्रीय महत्व के थे एक से अधिक प्रांत से संबंध रखते थे, जैसे विदेशी मामले, रक्षा, राजनैतिक संबंध, डाक, सार्वजनिक, संचार व्यवस्था, दीवानी फौजदारी मामले सभी केंद्रीय सूची में शामिल थे। परंतु जो प्रांतीय विषय के महत्व थे,, स्वास्थ्य, स्थानीय शासन व्यवस्था, चिकित्सा, प्रशासन, भूमिका, जलसंधारण, अकाल सहायता शांति, कृषि इत्यादि प्रांतीय सूची में शामिल थे जो विषय स्पष्ट और हस्तांतरित नहीं की गई वह सभी केंद्रीय माने गए।
आलोचना कार्यकारिणी में परिवर्तन का कोई विशेष महत्व नहीं था यद्यपि 8 में से 3 सदस्य भारतीय तो थे। परंतु एक भी महत्वपूर्ण विभाग उनके अधीन नहीं था यह सदस्य विधान मंडल के प्रति भी उत्तरदाई क्यों नहीं थे। जिस परिस्थिति में हुई थी वह केवल गवर्नर की हां में हां मिलाने वाली थी।
विषयों का विभाजन किस प्रकार से नहीं हुआ था इसमें विचार से काम नहीं लिया गया था।
विधान संबंधी परिवर्तन
एक सदन विधान परिषद के स्थान पर इस एक्ट के अनुसार केंद्र में द्विसदनीय व्यवस्था स्थापित हो गई। एक सदन राज्य परिषद और दूसरा सदन केंद्रीय विधानसभा था।
राज्य परिषद में जो ऊपरी सदन था 60 सदस्य थे जिनमें से 26 गवर्नर जनरल द्वारा मनोनीत होने वाले थे और 34 निर्वाचित होने वाली थे। इस प्रकार यहां निर्वाचित बहुत संख्या की स्थापना कर दी गई। 26 मनोनीत में से 19 पदाधिकारी तथा सात अशासकीय होने थे। 34 निर्वाचित में से 20 साधारण चुनाव क्षेत्रों में चुने जाने थे 10 मुसलमानों और तीन यूरोपी द्वारा एक सिखों द्वारा। इस राज्य परिषद का प्रतिवर्ष आंशिक रूप से नवीकरण होना था यद्यपि यह सदस्य 5 वर्ष के लिए बने थे। इनका प्रधान वायसराय द्वारा नियुक्त होता था। सदस्य को माननीय की उपाधि दी जाती थी। स्त्रियों की सदस्यता को उपयुक्त नहीं समझा गया। गवर्नर जनरल इस सदन को बुलाकर स्थगित अथवा भंग कर सकता था।
मताधिकार बहुत सीमित था, केवल वही लोग जिनकी आय ₹10000 वार्षिक की अध्यक्षों न्यूनतम ₹750 वार्षिक भूमिका के रूप में देते थे उन्हें मताधिकार प्राप्त था। दूसरे प्रत्याशी को किसी विधानमंडल का अनुभव होना चाहिए अथवा किसी विश्वविद्यालय की सीनेट का सदस्य होना चाहिए था। इसके अतिरिक्त व उपअधिकारी भी होना चाहिए था।
केंद्रीय विधानमंडल की शक्तियां
द्विसदनीय केंद्रीय विधान मंडल को पर्याप्त शक्तियां दी गई। वहां समस्त भारत के लिए कानून बना सकता था। भारतीय सरकारी अधिकारियों के लिए भी चाहे वे भारत में हो अथवा विदेश में सभी के लिए विद्यमान कानून को बदल सकता था अथवा रद्द कर सकता था, सदस्यों को प्रस्ताव अथवा उसे स्थगन का प्रस्ताव रखने की अनुमति थी तब की मैं पर तुरंत विचार किया जा सके। उन्हें प्रश्न पूछने का पूरा अधिकार था।
परंतु विधानमंडल में कुछ नियंत्रण थे, विधि एक रखने से पूर्व गवर्नर जनरल की अनुमति प्राप्त करने अवश्य थी।
प्रांतीय सरकार में दोहरी शासन व्यवस्था
1919 के एक्ट का सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन प्रांतीय शासन में आया, प्रांतीय शासन में दोहरी शासन व्यवस्था लागू कर दी गई। प्रांतों को दो भागों में बांट दिया गया आरक्षित व हस्तांतरित विषय। आरक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर अपने पार्षदों की सहायता से करता था जो मनोनीत थे।
आरक्षित विषय वे थे वित भूमि , अकाल संहिता, न्याय पुलिस, पेंशन, कल्याण , छापेमारी, स्थानीय सुशासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, चिकित्सा सहायता , पशु चिकित्सा आदि।
विधान संबंधी परिवर्तन
प्रांतीय विधान मंडलों में भी परिवर्तन हुए। प्रांतीय परिषदों को और विधान परिषदों की संज्ञा दी गई उनका अधिकार क्षेत्र बढ़ा दिया गया क्योंकि सभी प्रांतों में भिन्न-भिन्न था, इन प्रांतीय परिषदों में कम से कम 70% सदस्य निर्वाचित होने थे।
1919 के अधिनियम की विशेषताएं
प्रथम विश्व युद्ध से भारत में राष्ट्रीय भावना की विकास में बहुत सहायता मिली। मित्र नेताओं ने यह घोषणा की। की वे जर्मन नेताओं से इसलिए युद्ध कर रहे हैं ताकि जनतंत्र की रक्षा हो सके और प्रत्येक छोटी बड़ी जातियों को अपनी सरकार बनाने और चलाने का अधिकार मिल सके। भारतीय राष्ट्रीय नेता ने इन घोषणा को अंकित मूल्य में अंकित कर लिया और कहा यह आत्म निर्णय का अधिकार भारत को भी मिलना चाहिए।
इसलिए भारतीय नेताओं को शांत करने के लिए भारत सचिव लॉर्ड मांटेग्यू ने 20 अगस्त 1917 को कॉमन सभा में यह घोषणा की कि भारत में संवैधानिक सुधारों का उद्देश्य सुशासन प्रणाली का सुधार विकास करने विकास करने की आसान से धीरे-धीरे उत्तरदाई सरकार की प्राप्ति करना है।
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स्थानी निगमों नगर पालिका जिला बोर्ड इत्यादि में पूर्ण लोकप्रिय नियंत्रण।
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प्रांतीय शासन में आंशिक उत्तरदायित्व सरकार की स्थापना।
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केंद्र में विधान परिषद में विधान परिषदों का विस्तार तथा उसमें अधिक प्रतिनिधित्व।
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प्रांतों में लोकप्रिय नियंत्रित विभागों पर भारत सचिव का नियंत्रण कम से कम करना।
1919 की भारत सरकार एक्ट में इन सिफारिशों को वैधानिक रूप दे दिया गया।