भारत में राख के किले का रहस्य
आज हम इस आर्टिकल में आपको भारत में मिली नवपाषाण काल के राख के टिलो के बारे में बताने जा रहे है।
1830 और 1840 राख के टीले के विषय में दिलचस्पी ली जाने लगी। उस समय इन्हें भस्म टीले के और भस्म शिविर के नाम से जाने लगा।
इस पुरातात्विक किले की खोज डीजे न्यू बोल्ड के द्वारा की गई। इनके द्वारा उत्खनन किया गया उत्खनन के दौरान मृदभांड, पशु की हड्डियां, घर्षण पत्थर आदि प्राप्त हुए। इन प्राप्ति से यह पता चलता है कि इन टिलो का उदय भौगोलिक प्रक्रिया में ना होकर मानव निर्मित है।
दक्कन के पठार के दक्षिणी हिस्से में काली मिट्टी पर ग्रेनाइट के पहाड़िया खड़ी हो गई वहीं पहाड़ियों के नवपाषाण काल के गांव देखे गए और यहां से राख के टीले मिले हैं।
राख के टीले कहे जाने वाले स्थलों पर गोबर के ढेर को जलाए जाने की पुनरावृति दिखाई देती है। दरअसल यह नवपाषाण युगीन मवेशियों के बाडो प्रतिनिधित्व करते थे जिनके चारों तरफ वृक्षों की टहानियों का घेरा लगाया जाता था। वर्तमान समय में मध्य तथा दक्षिण भारत के आधुनिक पशुपालक भी इसी प्रकार के बाडो में अपने मवेशियों को रखते हैं।
गोबर के ढेर को वार्षिक उत्सव के समय जला दिया जाता होगा या तो वार्षिक प्रसाव के अंत होने के अवसर पर स्थान छोड़ने के पहले पिछले दिन तक एकत्र गोबर को चलाया जाता था। भारत के पशुपालक के बीच आज भी ऐसी प्रथा देखने को मिलती है। उनकी मान्यता है कि ऐसा करने से पशुओ की रोगों से रक्षा की होती है।
सभी दक्षिण भारतीय नवपाषाण स्थलों से राख के ऐसे टीले नहीं प्राप्त हुए हैं।
आंध्र प्रदेश में लकड़ी की घेराबंदी वाले बाड़े कई बार बनाए गए थे इसमें उतनी ही बार एकत्रित गोबर के ढेर को चलाया जाता रहा।
बुदिहाल गुलबर्गा जिला कर्नाटक पुरातात्विक खनन 1993 में के, पदेदया एवं उनकी टीम के द्वारा किया गया इस उत्खनन का एक उद्देश्य इस स्थल के पर्यावरण तथा अन्य भौतिक प्रमाण का अध्ययन करना था।
बुदिहाल के मुक्ति पुरातात्विक क्षेत्र के बिल्कुल मध्य में राख के ढेर पाए गए है। राख के टीले के अध्ययन से यह पता चलता है कि मवेशी बाडो का क्षेत्र पूर्व में था और गोबर इकट्ठा करने का क्षेत्र पश्चिम में।
बुदिहाल के पुरातात्विक सर्वेक्षण ने यह स्पष्ट कर दिया कि वहां स्थित राख का टीला अपने समकालीन बस्ती का अभिन्न अंग था। उनके अनुसार वहां की मिट्टी कृषि योग्य नहीं थी। यहां के पहाड़ों से साफ किया गया गोबर एक ही स्थान पर इकट्ठा किया जाता था। निश्चित अवसर पर उनको चला दिया जाता था।
राख का टीला |
निष्कर्ष
राख के टीलों का रहस्य की गुत्थी सुलझाने के बाद अनुसंधान में इतना तय कर दीया की गोबर के ढेरों को कई बार चलाया जाता गया था। उनके बार-बार जलने से इसने एक टीले का रूप ले लिया।
वर्तमान समय में भी मवेशियों को मच्छर से काटने के लिए गोबर के कंडे जलाए जाते हैं और यह बाद में राख का रूप ले लेते हैं। प्राचीन काल में गोबर के ढेर का प्रयोग किया जाता होगा क्योंकि उस समय पशुपालन बहुत ज्यादा होता था। गोबर की ढेर राख के रूप में परिवर्तित हो जाते थे लेकिन उस राख को मानव द्वारा नहीं उठाया जाता होगा धीरे-धीरे करके राख ने टीले का रूप ले लिया ।