प्राचीन भारत में दास प्रथा क्या थी – Prachin Bharat Mai Dash Prtha Kya Thi

Prachin Bharat mein Das pratha :भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में दास प्रथा  प्रचलित थी, प्राचीन भारत में दास प्रथा का जन्म हुआ और इसकी महत्वपूर्ण कारण भी थे।

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प्राचीन भारत में दास प्रथा
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दास किसे कहते हैं ?

दासता वह संस्था है, जिसमें एक व्यक्ति दूसरे के अधीन हो जाता है और दासता का  मूल कारण युद्ध है।  जब कोई राजा हार जाता है तो  उसके सैनिकों को बंदी बना लिया जाता है, दूसरा राजा उन्हें  अपने वहां दास के रूप में रखता है।  ऋण ना चुकाने के  कारण, शर्त हार जाने के कारण, यह काल की अवस्था में लोग दूसरे व्यक्ति के दास बन जाते हैं। पश्चिमी देशों में इस अवस्था का  दास में  आर्थिक, सामाजिक और  राजनैतिक पर व्यापक प्रभाव पड़ा ।

भारती  सभ्यता के विकास में दास प्रथा का इतना महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहा है, किंतु  इसमें कोई संदेह नहीं है   कि यह अति प्राचीन काल से  भारतीय समाज का अंग है।

दास स्वतंत्र व्यक्ति नहीं होता है, ना ही वह किसी ने आने के सामने  साक्षी  बन  सकता  है और उसका कोई विश्वास भी नहीं करता है।उसके मालिक को उसका जीवन समाप्त करने का पूरा अधिकार होता था।

गुप्तोत्तर काल में दास प्रथा(  लगभग 600 ईसवी से लेकर 1200 ई तक)

इस काल में  दास प्रथा पूर्ण रूप से प्रचलित हो चुकी थी, दासो को मंडी में बेचा और खरीदा जाता था।

भारतीय इतिहास के कई ग्रंथों में दास प्रथा का उल्लेख मिलता है।

दासो के  प्रमुख कार्य

व्यक्ति को इसलिए दास बनाया जाता था ताकि वह दूसरे व्यक्ति के अधीन होकर काम कर सके।

1 दास का मुख्य रूप से  घर का कामकाज करना होता था।

2 मेधातिथि ने सेवक के कार्य  को परिचार्य कहा है, और दास की कार्य के अंतर्गत निसक्रत कर्म करना और  मालिक जहां भेजें  वहां जाना चाहिए।

3 परिचार्य के अंतर्गत लिखा है कि, मालिश करना, घर की देखभाल करना, परिवार की देखभाल करना आदि दासो के काम होते हैं।

4 पूर्व काल की अपेक्षा गुप्तोत्तर काल में  दासो से  कृषि कार्य भी कराए जाने लग गई थे, बहुत कम दास ऐसे थे जो किसानों की  खेती में काम करते थे, बौद्ध भिक्षु को दान में गई भूमि पर  कुछ भी  भिक्षु इतने  लोभी थे कि वह दास ओर दासियों से स्वयं कृषि करवाते थे।

5 इस समय दासो की संख्या इतनी बढ़ गई थी कि  भूमि बेचने के साथ-साथ दासो को भी  बेचा जाता था।

6 गुप्तोत्तर काल में दासियों से, घर की सफाई कर आना, खाना बनाना , कपड़े धोना, लिपाई पुताई करना  आदि कार्य कराए जाते थे।

लेख  पद्धति में दासियों  के अन्य कार्य का वर्णन मिला है जैसे  मसाला  पीसना, लकड़ी लाना, घास काटना, मक्खन निकालना, मालिक की सेवा करना आदि।

लेख पद्धति में लिखा है कि  कई दो दासियों को उप पत्नी के रूप में  रखा जाता था।

राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि सातवीं सदी में कश्मीर के मंदिर में कई देवदासीया से निवास करती थी।

दक्षिण भारत के अभिलेखों से भी ज्ञात होता है कि वहां के मंदिरों में देवदासिया या निवास करती थी, चोल राजा राजराजा प्रथम ने  अपने मंदिर में 400 देवदासियों की सेवा  अर्पित की थी।

दासो के  प्रकार

मुख्य रूप से दास  चार प्रकार के होते हैं, का उल्लेख  वीज्ञानेश्वर में  मिलता है।

क्रितादास –   खरीदे गए दासो के बारे में  बहुत सारी कथाएं प्रचलित है। गुप्तोत्तर काल में दासो  का व्यापार  नियमित रूप से होता था। आदिवासी लोग भील दासों का व्यापार करते थे। दासो को भारत से विदेशों में भी भेजा जाता था।

 

ऋणदस –  कभी-कभी  हर व्यक्ति कर्ज न चुकाने के कारण भी  कर्जदार का दास  बन जाता था वीज्ञानेश्वर में इस प्रथा का उल्लेख किया गया है।

स्व विक्रय दास- सामंतों की पारिवारिक युद्ध के कारण, मुसलमानों की आक्रमण के कारण अनेक व्यक्ति  अपना भरण-पोषण नहीं कर पाते थे  इसलिए वह दास  बन जाते थे।  निर्धन लोग भी अपनी गरीबी के कारण  राजा के दरबार में दास  बन जाते थे।लेख पद्धति में इस बात का  वर्णन किया गया है।

ध्वजाहत दास-  इस समय सामंतों के पारस्परिक युद्धों में जीतने वाला सामान  दूसरे सामंत के  सैनिक को बंदी नहीं बनाता था बल्कि  हारे हुए सामंत के राज्य के  स्वतंत्र व्यक्तियों को भी बंदी बना लेता था  और इन सभी व्यक्तियों को दासो के  रूप में काम करना पड़ता था। 1197 में  जब गुजरात में मुसलमानों ने आक्रमण किया था  तब लगभग  20000 व्यक्तियों को उन्होंने अपना दास बनाया था। परंतु मुस्लिम समाज में हिंदू  समाज की अपेक्षा   दासो की  स्थिति अच्छी थी।

दासो के साथ व्यवहार

मेधातिथि में लिखा है कि  मालिक को दासो के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए।  मनु ने लिखा है कि दास  अपनी मालिक की अनुमति से  प्रयोग कर सकता है।

दासो को अनुशासन में  लाने के लिए  मालिक उन्हें  डांट  कर समझा सकता है।  महिला दासो की स्थिति  अत्यंत खराब थी, उनसे बहुत ज्यादा कार्य कराया जाता था।

लेकिन  इस बात पर निर्भर करता है कि मालिक दास और दासियों के  साथ कैसा व्यवहार करता है। बहुत से मालिक अपने दासो के साथ

अच्छा व्यवहार करते थे।

अंतिम शब्द

भारत में दास प्रथा का मूल कारण युद्ध है।  प्राचीन भारत में   सामंत एक दूसरे से लड़ते थे, और एक दूसरे के सैनिकों को दास बना लेते थे। दास, दासो के प्रकार, दास के कार्य इन सभी की जानकरी आपको मिल गई होगी।

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